२०२ [पंद और उनका साहित्य E पत्र 'केसरी' में एक ऐसे ही लेख का विवरण छपा था जिसे हम पाठकों के ज्ञानार्थं ज्यों का त्यों उद्धन करते हैं। यह लेख-दतिण के किन्ही नागा-धुंडिराज गणेश बापट दीक्षित सोमयाजी का लिया हुअा था- "गत फरवरी मास में मैंने थोध में अग्निष्टोम नामक सोमय किया था ! और उसमे पशु हवन करके उसके अंगों की थाहुतियाँ थी । उस पशु हवन के सम्बन्ध में वैदिक धर्म की धाज्ञा न माननेवा (?) ने बहुत कुछ लेख अखबारों में लिखे थे। "बाह्मणादि वणियों के वर्णाश्रम विहित कर्तव्यों में यज्ञ कर्म मुख्य है । यज्ञ में हवन मुख्य है 1 और हवन में अनेक देवताओं के उद्देश्य से मन्त्रपठनपूर्वक विविध पदार्थों की पाहुतियाँ दी जाती हैं । जैसे भाग्य, चर, पुरोडाश, सोमरस ये द्रव्य है । तथा थन, मेष, ग्रादि पशुओं के अवयवों का माँस भी है "भारतीय युद्ध के पश्चात् जैन और बौद्धों ने वैदिक धर्म पर बड़ा भारी हमला किया--जिससे वैदिक यज्ञसंस्थाओं को वहा पका लगा। तथापि तत्पश्चात् गुणवंशीय राजा लोग-शातकर्णी, चालू कर पुलकेशी श्रादि राजाओं ने अश्वमेध जैसे यज्ञ ( कि जिन में ३०० पशुओं का हवन विदिल है । किये और वैदिक परम्परा को स्थिर किया। राजा जयसिंह ने भी अवमेध यज्ञ किया था। यज्ञीय हिंसा--हिंसा नहीं है। छांदोग्य उपनिषद् में कहा है कि:- "माहिस्यात्सर्वाणिभूतानि अन्यन्न तीर्धम्यः । "शांकर भाष्य-तीर्थनाम शास्त्रानुज्ञा विषय, ततोऽन्यत्रेत्यर्थः । शास्त्र की प्राज्ञानुसार जो कम किया जाता है-वही तीर्थ है । इस प्रकार के कर्मों को छोड़ कर अन्य कर्म में हिंसा कानी नहीं चाहिये। तात्पर्य श्री शंकराचार्य भी यज्ञीय हिंसा के विरोधी नही थे। "देवताओं के उद्देश्य से यज्ञ प्रसंग में वेदोक्त विधि से जो पशु-हवन, होता है-उसमग नाम हिंसा नहीं है । अपना पेट भरने के 11
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