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पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/२९

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[ वेद और उनका साहित्य २३ दिखाई देते हैं, ये माती नक्षनचक्र से पृथक है । नक्षत्रचक्र में इनकी कुछ भी गति नहीं है। परन्तु पाप मर इल के जो दो तारे ध्रुव के साथ सम सत्र में अवस्थित है वे जिस न स्त्र के साथ रहते है सप्तर्षि मण्डल मी उन्ही के साथ रहता है। कुरुक्षेत्र के युद्ध-काल मे सप्तर्षि मण्डल मधा नक्षत्र में स्थित देखा गया था याज भी सप्तर्षि मण्डल मघा नक्षत्र - she सप्तर्वि-मण्डल में गति न रहते हुए भी प्राचीन लोगों ने उसकी गति की कल्पना करके उसके द्वारा समय निर्णय करने का उपाय निकाला था 1 उनका अनुमान था कि सप्तर्पि-मंडल एक एक नक्षत्र में सौ-सौ वर्ष रहता ऋग्वेद मंहिता मे विधुवन् रेखा में मृगशिरा नक्षत्र की अवस्थिति का उल्लेख पाया जाता है। मामण युग में भी इसी रेखा में कृत्तिका नक्षत्र की स्थिति का परिचय मिलता है। महात्मा निलक का भी यही मत है और जर्मन विद्वान याकोबी इमके समर्थक है कि ईसा से २५०० वर्ष पूर्व कृत्तिका नक्षत्र में एवं ४१०० वर्ष पूर्व मृगशिरा में महाविश्व संक्रान्ति संघटित हुई थी। रव० निलक ने इस ज्योतिष विज्ञान के श्राधार पर वेदों के विषय में जो गवेपणा की है उसके दो परिणाम स्पष्ट है। एक यह कि वेदों का निर्माणकाल ईसा से ८ हजार मे १० हजार वर्ष पूर्व तक का है। दसरा चेदों का निर्माण उत्तरीय ध्रुव अर्थात् सुमेरु पर हुआ है। ऋग्वेद का ।। २७ । १० का मंत्र स्व. तिलक का प्रयल अवलम्म है। इस मंत्र का यह अर्थ है- " जो मप्तर्षि मात्र सिर के उपर स्थित है वे रात्रि में दिखते हैं, और दिन में अदृश्य हो जाते है । बहमा भी रात ही में दिग्वता है, ये