पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथम अध्याय] ब्राम्हण के दो भेद हैं-विधि और अर्थवाद। विधियाँ दो प्रकार की हैं। जिन कमों में स्वभावतः आप से आप लोगों की प्रवृत्ति नहीं है उनमें प्रवृत्त कराना विधि है। यज्ञों का विधान पहिली विधि है। दूसरी विधि अज्ञात ज्ञापन है। जैसे एक ही अद्वितीय सत्य-ज्ञान स्वरूप ब्रम्ह है, यह दूसरे किसी प्रमाण से ज्ञात नहीं है। अर्थदाद विधि-वाक्यों की प्रशंसा करता है । इस प्रशंसा करने का यह उद्देश्य होता है कि लोग उन कर्म-प्रशंसाओं को सुन कर उनके करने में प्रवृत्त हों। " वायुर्वेपिष्टा देवता "-वायु बहुत शीघ्रगामी देवता है। वायु की इस प्रशंसा से वेद उस कर्म की तरफ लोगों का ध्यान दिलाता है जिसका देवता वायु है। सायण, वेद को अपौरुषेय नो मानते हैं। पर उस अपौरुषेय का अर्थ केवल यही है कि वेद मनुष्य कृत नहीं, ईश्वर कृत हैं। अपने जैमिनी न्याय माला में सायण ने उत्तर दिया है कि वेद की शाखाएँ काठक, कौथुम- तैत्तरीय प्रादि ऋपियों के नामों से प्रसिद्ध हुई हैं। फिर वे ऋपिकृत क्यों नहीं? वे कहते हैं ऋपियोंने उन शाखाओं का अपने शिष्यों को उपदेश मात्र देकर सम्प्रदाय चलाया है। सायण कहते हैं- पौरुषेयं न वा वेद वाक्यस्यात्पौरपेयता। काठकादि समाख्याताद्वाक्यत्वाच्यान्य वाक्यवत् । समाख्यानंतु प्रवचनाद्वाक्यत्वं तु पराहतम् । तत्कर्मनुपलम्भेनस्यात्ततोऽपौरुषेयता। इसी जगह सायण कहता है- 'परमात्मातु वेदकर्ताऽपि न लौकिकः पुरुषः । यथा वाल्मीकि व्यास प्रभृतयोऽव्रतत्तद्ग्रन्थ निर्माणावसरे कैश्चिदुपलब्धाः श्रन्यैरप्यविच्छिन्न सम्प्रदायेनोपलभ्यन्ते । न तथा वेदकर्ता कश्चित् पुरुष उपलब्धः । सायण का यह भी मत है कि वेद की ध्वनि से ही जगत का