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पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/३८

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[ वेद और उनका साहित्य निर्माण हुआ है। इस विषय में सायण का अभिप्राय यह है कि मनुष्य जब कोई चीज बनाना चाहता है तब उसके वाचक शब्द को प्रथम ही स्मरण कर लेता है। कुम्हार घड़ा बनाने में प्रथम घड़े का नाम याद कर लेता है। उसी प्रकार सृष्टि कर्मा ने यारा संसार की रचना उन बातों के नामस्मरण ही से की है और ये वेद नित्य है। इस पर शंका होती है कि प्रलय काल में तो संसार का एक दम नाश हो जाता है। सूर्य, चन्द्र श्रादि पदार्थ नही रह जाते, तब शब्द कहाँ रहा ? फिर सृष्टि के निर्माण मे तो शब्द और अर्थ भी नये बनते होगे। तब शब्द और थर्थ का वेद से नित्य सम्बन्ध कैसे रह सकता है। सायण ने वेदान्त की दृष्टि से इसका कनर दिया है कि यद्यपि महा- प्रलय के समय अन्तःकरण शादि की वृत्तियां स्फुरित अवस्था में नही होती है तो भी उनकी सना अपने कारण में विद्यमान रहती है। अत- पुष मूपम शक्ति रूप से कमी की विक्षेपक अविद्या वासनाओं के साथ निगृह रहती है। मनु का भी यही मत है- भासीदिदं तमो भूतमप्रज्ञातमल लाम् । श्रमनयमविजयं प्रसुतमिव सर्वात.॥ कछुए के शरीर से छिपे हुए अवयव निकल पाते है उसी प्रकार जीवों की मुरुम भावनाएँ सृष्टि में जाग्रत हो जाती है। कर्मवास- नात्रों के अनुसार ही जीवों की उत्पत्ति होती है। बीजांकुर न्याय से पू वामना और मामा का सम्बन्ध है शब्द और अर्थ का निय सम्बन्ध है। इससे वेद की निन्यता बोध होती है। श्वेताश्वेतोपनिषद् में लिखा है कि- सो प्रमाणं विदधाति पू यो वै वेदांश्च प्रहिणोनि तस्मै तहि देवमात्मवृद्धि प्रकाशं मुमुनु शरणमई अपये।। -- -