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पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/५७

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[घेद और उनका साहित्य पुराणों से पता लगता है कि हिमालय के प्रत प्रत्रवण से सरस्वती निकला, और पुण्य तार्थ पृथूदक कुरुक्षेत्र के ब्रह्मावर्त प्रदेश में होती और क्रमशः पश्चिम दक्षिण मुकनी हुई द्वारिका के समीप समुद्र मे मिली है। इम सरस्वती नदी के तौर पर प्रजापति ब्रह्मा से लेकर थनेक देव- तायो ऋपियो और मुनियों ने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे और सप्त ऋषियों से लेकर अनेक प्रमुख पिवरों के श्राश्रम सरस्वती के तौर पर थे। इन सब के ब्रह्मावत नामक प्रदेश में जो कुरुक्षेत्र के ग्राम पास है अधिक थाश्रम थे। मनुस्मृति में लिखा है- 'मावती पदयादव नदोर्यदन्तरम् । तन्देव निर्मित देशं ब्रह्मावर्तविवुधा' ।। भर्थात्--सरस्वती और पद्धति इन दोनों नदियों के बीच का देश ब्रह्मावर्त कहाना है। इतिहास की छोटी से छोटी बात पर भी गहरा विचार करना चाहिए। तैत्तिरीय, शतपय माह्मण में भी इस क्षेत्र की प्रशंसा की गयी है। महाभारत के शल्य पर्व में, गदायुद्ध पर्व में, बलदेव तीर्थ यात्राध्याय और सारस्वतोपाग्यान के कई स्थलो में सरस्वती और कुरुक्षेत्र का वर्णन थाया है । बलदेव जी जय तीर्थ यात्रा को निकले तन द्वारका से चलकर सरस्वती के निकास स्थान नन प्रत्रवण पर्वत पर चढ़ गये थे। यहाँ सरस्वती की शोभा देखकर उनने कहा है कि:- सरस्वती वास समा दुतो रतिः, सरस्वती यास समा कुतो गुणाः । सरस्वती प्राप्य दिवंगता जना. सदा स्मरिष्यन्ति नदीं सरस्वतीम् । सरस्वती सर्व नदी पुण्या,