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पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/५८

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दूसरा अध्याय] सरस्वती लोक सुखावहा सदा । सरस्वती प्राप्य ननाः सुदुष्कृतं, सदा न शोचन्ति परत्र चेह च। तीर्थपुण्यतमं राजन् पावनं लोक विश्रुतम् । यत्र सारस्वतो यातः सोऽगिरास्तपसोनिधिः । तस्मिस्तीर्थे नरः स्नात्वा वाजिमेधं फलं लभेत् । सरस्वती गतिं चैव लभते नात्र संशयः ॥ उक्त श्लोकों में "सरस्वती प्राप्यदिवंगताः" और "सरस्वती गतिं चैव लभते" इत्यादि पदों से निश्चय होता है कि, बलदेवजी के समय से पूर्व ही सरस्वती सूख गयी थी । इसकी पुष्टि में उसी तीर्थ यात्रा प्रकरण में और भी प्रमाण मिलते हैं जैसे- 'ततो विनाशनं राजन् जगमाथ हलायुधः । शूद्रा भीरान् प्रति द्वेषाद्यन्न नप्ता सरस्वती ॥ यस्मात्सा भरत श्रेष्ठ द्वेपानष्टा सरस्वती। तस्मात्तदृष्टयो नित्यं प्राहुविनशनेतिहि" ॥ इससे पता लगता है कि शूद्र और अहीर जाति के लोगों के किसी प्रतिबन्ध के कारण जिस प्रदेश में सरस्वती नष्ट हुई उसका नाम "विनशन' पड़ा । यह विनशन प्रदेश वर्तमान मेवाड़ प्रान्त के पश्चिम भाग का मरु प्रदेश प्रतीत होता है। यद्यपि सरस्वती नदी महाभारत के काल में नष्ट हो चुकी थी परन्तु नैमिपारण्य तीर्थ में तथा पुष्कर, गया, उत्तर कोशल, ऋषभद्दीप, गगाद्वार, कुरुक्षेत्र, हिमालय आदि स्थानों पर सरस्वती के प्रवाहों का वर्णन मिलता है। इन वर्णनों से पता लगता है कि, सरस्वती की वह विशाल धारा गयी थी, परन्तु फिर भी कहीं-कहीं उसकी छोटी धाराएँ महा भारत