पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/६०

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दूसरा अध्याय ] है । वहाँ से वह नदी उदयपुर के दक्षिण पश्चिम सिद्धपुर, पटना, मातृ गया, के पास होती हुई कच्छ के निकट द्वारका वाले पश्चिम समुद्र की खाड़ी में जा मिलो है। उसकी वह शाखा जो सुरेणु नाम से प्रख्यात है और जहाँ दक्ष ने यज्ञ किया था प्रयाग में गङ्गा यमुना के सङ्गम पर मिल गयी होगी। ऋग्वेद के मन्त्रों में जो "सप्तसिन्धु" "सिन्धुमाता" और "सिन्धु रन्या" शब्द पाया है उससे ऐसा भी मालूम होता है कि पञ्जाब का प्रसिद्ध सिन्धुनद (अटक) और पञ्जाव की अन्य १ पांच नदियां भी महा नदी सरस्वती में मिल गयीं थीं। यजुर्वेद में भी एक मंत्र (२)

  • 'सुरेणु ऋ पभे द्वीपे पुण्ये रानपि सेवते ।

कुरोरच यजमानस्य कुरुक्षेत्रे महात्मनः ।। श्राजगाम महाभाग सरित् श्रेष्ठा सरस्वती। श्रोषवन्नपि राजेन्द्र वशिष्टेन महात्मना ।। समाहृता करुक्षत्रे दिव्य तोया सरस्वती । दक्षण यजता चापि गंगा द्वारे सरस्वती सुरेणुरिति विख्याता प्रस्तु ता शीघ्रगामिनी । विमलोदा भगवती ब्राह्मणा यजता पुनः॥ समाहूता ययौ तत्र पुण्ये हैमवते गिरी। एकी भूतास्ततस्तास्तु तस्मिन्स्तीर्थे समागताः ॥ सप्त सारस्वतं तीर्थस्ततस्थत्प्रथितं भुवि । इति सप्त सरस्वत्योः नामतः परिकीर्तिताः ॥ सप्त सारस्वतं चैव तीर्थम्पुण्यं तथा स्मृतम् । (महाभारत) 'पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यान्ति सस्रोतसः (२) सरस्वती तु पञ्चधासौदेशेऽभवत्सरित् । य० प्र० ३४ ॥ कं० ११ महो अणेःसरस्वती प्रचेतयतिकेतुनो । ऋम १।३ सूक्त