{वेद और उनका साहित्य के काल नक थी । ऐसी सात धाराएँ और मुरेणु नाम की धारा ऋषभद्वीप मे तथा एक गङ्गाद्वार में ऐसी कुल नौ धाराओं का निक्र मिलता है जिनके पृथक्-पृथक् नाम रख लिए गये थे और जो तीर्थ की तरह प्रतिष्ठित्त थी । अब एक प्रश्न हल करने को यह रह गया कि, वेदों में जिस सर- स्वनी की मुख्य धारा का वणन है वह तो पश्चिमाभिमुखी प्रवाहित होकर पश्चिम समुद्र में द्वारका के निकट गिरी थी। तब प्रयाग के त्रिवेणी सङ्गम पर सरस्वती की प्रसिद्धि होने का कारण क्या ? क्योंकि सरस्वती की गति पूर्व में प्रयाग तक तो नही पायी जाती। ऐसा मालूम होता है कि महानदी सरस्वती की मुरय धारा प्लक्ष प्रवण से निकल कर कुरुक्षेत्र के स्थाणु तीर्य तक बहो है जो थाज तक देवा वै सत्र मासत, ऋद्धि परिमितं यशस्कामाः । तेऽनुवन् यन्म, प्रथमं यश ऋच्छात्, सवेटा नस्तन्महापदिनि । तेषां कुरुक्षेत्र वैदिरासीत् तस्मै स्वारडवो दाक्षणाई श्रासीत तुध्वमुत्तरार्द्धः परीणाज्जवनाद्ध मख्ख उत्कटः तेषां मखं वैष्णवं यश प्राच्छत् । ते। कुरुक्षेत्र न्देवानां देवयजनं सर्वेषा भूताना ब्रह्म मदनं । कुरुक्षे व देव यजनम् । श० प० । सुप्रभा काञ्चनाक्षी च दिशाला च मनोरमा । सरस्वती चोधवती सुरेणुर्विमलोदका। पितामहेन यजता पाहता पुष्करपु वै। सुप्रभो नाम राजेन्द्र नाम्ना तत्र सरस्वती। भाजगाम महाभाग तत्र पुण्या सरस्वती। नैमिपे कांचनाक्षी थाहूता सरिता श्रेष्टा गययज्ञे सरस्वती। विशालान्तरं गवाहु मंशित प्रता। उत्तरे फोशला मागे पुण्ये राजन् महात्मनः । उधालन यजता पुर्व ध्याना सरस्वती। श्राजगाम् सरिन् श्रेष्टा संदेश पिकारणात् । मनोरमेति विख्याता' + 1 ... .. ऋपया I...
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