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वेनिस का बांका
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रोजाबिला―"कुछ काल पर्यन्त उसे आश्चर्य की दृष्टि से देखती रही इसके उपरान्त उसने शीघ्रता पूर्वक अपना हाथ खींचकर कहा "मैं आज्ञा देती हूँ कि आप यहाँ से भी चले जाँय, परमेश्वर के लिये आप प्रस्थान कीजिये"॥

उसकी इस कठोरता पर फ्लोडोआर्डो अपना हाथ दुःख से मलता हुआ धीरे धीरे द्वार पर्यन्त गया। ज्योंहीं उसने देहली के बाहर पद रक्खा, और मुड़ कर रोजाबिला से सदा की बिदा माँगी कि अचाञ्चक रोजाबिला दौड़ पड़ी और उसका हाथ लेकर निजोच्छलित हृदय पर रखने पीछे कहने लगी "फ्लोडो मैं तेरी हूँ"। इतने शब्द उसकी चंचला रसना से कठिनता से निकले थे कि वह उसी ठौर गिर पड़ी और अचेत होगई॥



अष्टादश परिच्छेद।

इस उपन्यास के पाठकों को बिगत परिच्छेद के आशय से ज्ञात हुआ होगा कि फ्लोडोआर्डो वास्तव में कैसा सद्भाग्य व्यक्ति था। प्रगट है कि जिस बस्तुकी उसे बहुत कालसे कामना थी, जिसके लिये उसने बीसियों आपत्तियों को क्रय किया था, शतशः संतापों को सहन किया था और सहस्रों दुःखों और क्लेशों को झेला था, वह अब प्राप्त हुई अर्थात् रोजाविला सी अप्सरा ने अपनी जिह्वा से उसकी प्रीति का प्रकाश किया। बिचार कीजिये कि संसार में प्रेमी के लिये इससे अधिकतर प्रिय और कौनसा पदार्थ है कि उसकी प्रेयसी स्वयं प्रेमी बन जाय और उसे अपने संयोग की आशा दिलाये। ऐसे अवसर पर शरीर