एकविंशति परिच्छेद।
द्वितीय दिवस अरुणोदय काल ही से महाराज के प्रासाद में आमंत्रण का आयोजन आरम्भ हुआ। अंड्रि- यास को रात भर आतङ्क से निद्रा न आई, जैसे ही ऊषाकाल हुआ वह पर्यक से उठ खड़े हुये। रोजाबिलाने अपनी रात अत्यन्त उद्विग्नता के साथ समाप्त की, तमाम रात फ्लोडोआर्डो को ही स्वप्न में देखा की, चौंकने पर भी उसका स्वरूप उसकी दृष्टि के सम्मुख घूमता रहा। कामिला भी जिसने रोजाबिला को अपनी दुहिता समान पालन किया था, इसी चिन्ता में कि प्रातःकाल क्या हो क्या न हो बराबर जागती रही। वह भली भाँति जानती थी कि आज ही के दिवस पर रोजाबिला का भविष्यत निर्भर है। मुँह हाथ धोने उपरान्त कुछ काल पर्यन्त रोजाबिला अत्यन्त प्रसन्न बदन थी। कभी वह आला- पिनी बजाकर अपना चित्त प्रसन्न करती, और बहलाती कभी मैरवी का गान करके हृदय की व्यग्रता को निवारण करती, परन्तु जब मध्यान्ह का समय समीप आया, रोजाबिलो ने गाना बजाना त्याग कर आयतन में टहलना प्रारम्भ किया। ज्यों ज्यों दिन ढलता जाता रोजाबिला की व्यग्रता वृद्धि लाभ करती। तनिक तनिक सी ध्वनि उसके हृदय पर बाण का सा प्रभाव करती और बार बार उसे चौंका देती थी।
इस अवसर पर महाराज के प्रशस्त और विस्तृत प्रासाद में वेनिस के समस्त विख्यात व्यक्ति पाकर एकत्र होते जाते थे, यहाँ तक कि तृतीय प्रहर के समीप सम्पूर्ण स्थान पूर्ण हो गया। उस समय महाराज ने कामिला को आज्ञा दी कि वह रोजाबिला