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त्रयविंशति परिच्छेद
 

त्रयविंशति परिच्छेद।

विगत परिच्छेद के अंतिम भाग के पठन करने से इस मनोहर उपाख्यान के पाठकों को एक बहुत बड़े आश्चर्य्य ने आच्छादन किया होगा और क्यों न करे ओश्चर्य्य की बात ही है समझे कुछ और थे हुआ कुछ और। भाई परमेश्वर का शपथ है कि मुझे भी प्रायः महाराज के समान इस विषय का ध्यान होता था कि बेचारे फ्लोडोआर्डो की युवावस्था निष्प्रयोजन अकारथ गई, और अविलाइनो मन्द- भोग्य ने उसे भी मार खपाया। परन्तु इस बात से किञ्चिन्मात्र समाधान होता था कि फ्लोडोआर्डो ने इस कार्य के सम्पादन का भार कुछ समझ ही कर ग्रहण किया होगा, बारे परमेश्वर परमेश्वर करके इस प्रतीक्षा का शेष हुआ, और हृदय के नाना- तर्क समूहों ने प्रयाण करने कीं चेष्टा को, अर्थात् फ्लोडोआर्डो ने अपना स्वरूप दिखलाया, और लोगों को अबिलाइनो के आयत्त हो जाने का शुभ समाचार श्रवण कराया। परन्तु अब एक नूतन घटना घटित हुई अर्थात् जिस समय वह नृपति महा- राज के प्रशस्त प्रासाद में आकर उपस्थित हुआ तो किसी को यह न ज्ञात हुआ कि फ्लोडोआर्डो अचाञ्चक कहाँ लुप्त हो गया, और उसके स्थान पर अबिलाइनो क्यों कर आ प्रस्तुत हुआ। सब की बुद्धि लुप्त प्राय थी कि यह कैसा अनिर्वचनीय इन्द्रजाल है। नये खेल कौतुक तो ऐन्द्रजालिकों के बहुत देखे परन्तु यह अद्भुत कायापलट है कि समझही में नहीं आता। इस पर बिलक्षणता और विचित्रता यह थी कि अविलाइनों के आतंक से लोगों की संज्ञा और सुधि अकस्मात् विनष्ट हो गई, तनिक पता मिलता ही न था कि पृथ्वी खागई, अथवा अकाश निगल गया,