पृष्ठ:वेनिस का बाँका.djvu/१८७

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काव्य-ग्रन्थरत्न-माला-आठवाँ रत्न

महात्मा सूरदासजी प्रणीत

भ्रमरगीत―सार

( सम्पादक पं॰ रामचन्द्र शुक्ल )

सन्त-शिरोमणि, साहित्याकाश-प्रभाकर, महात्मा सूरदासजी से विरले ही हिन्दी-प्रेमी अपरिचित होंगे। सूरदासजी हिन्दीसाहित्य की विभूति हैं, जीवन-सर्वस्व हैं। इनकी काव्य-गुण- गरिमा का उसको घमंड है। कहा भी है "सूर सूर तुलसी शशि, उडुगण केशवदास"। यथार्थ में हिन्दी में उनका सर्वोच्च स्थान है। इनकी अनुपम उपमा, कविता-माधुरी तथा अर्थ- गंभीरता के सभी कायल हैं। इन्हीं महात्मा के उत्कृष्ट पदोंका यह संग्रह है, सागर का सार अमृत है। सूर-सागर का सर्वो- त्कृष्ट अंश भ्रमरगीत माना जाता है। उसी भ्रमरगीत के चुने हुए पदों का यह संग्रह है। इसमें चार सौसे भी ऊपर पद आ गये हैं। इसका सम्पादन हिन्दी-साहित्य-संसार के चिरपरि- चित एवं दिग्गज विद्वान् पं॰ रामचन्द्र शुक्ल, प्रो॰ हिन्दू- विश्वविद्यालय काशी, ने किया है। एक तो सूरदास की कविता, दूसरे हिन्दी के विशिष्ट विद्वान् द्वारा उसका संपादन 'सोने में सुगन्ध' हो गया है। सम्पादकजी की ८० अस्सी पृष्ठ की दीर्घकाय भूमिका ही पुस्तक की महत्ता को दुगुनी कर रही है। पदों में आये हुए कठिन शब्दों के सरलार्थ भी पाद- टिप्पणी में दे दिये गये है। यह पुस्तक हिन्दू-यूनिवर्सिटी में एम॰ ए॰ में पढ़ाई भी जाती है। विशेष क्या! पुस्तक का महत्त्व उसके देखने ही पर चल सकेगा। पृष्ठ-संख्या करीब २५० के। मूल्य १)