दिनों बाद वर्तमान रहे हों। मैं तो केवल सुनी सुनाई बातों के आधार पर केवल यही कह सकता हूँ कि उस समय हिन्दी में बहुत इनी गिनी पुस्तकें थीं और हिन्दी लेखकों की संख्या तो उँगलियो पर गिनने योग्य थी। और पाठक भी इतने थोड़े होते थे कि दस बीस बरस तक भी पुस्तकों का दूसरा संस्करण होने की नौबत नहीं आती थी। परन्तु इस बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से हिन्दी भाषा तथा साहित्य की जो दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति हो रही है, उसके कारण लोगों का ध्यान अनेक पुराने रत्नों की ओर जा रहा है और वे फिर नए सिरे से सर्व साधारण के सामने उपस्थित किए जा रहे हैं। यही प्रवृत्ति इस पुस्तक के दूसरे संस्करण के प्रकाशन का मुख्य कारण हुई है।
वेनिस का बाँका प्राजसे प्रायः उनतालीस वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था और उस समय के हिन्दी संसार ने इसका समुचित और यथेष्ट आदर किया था। परन्तु इधर बहुत दिनोंसे यह ग्रन्थ अप्राप्य हो रहा था और जिन लोगोंके हृदयमें इस प्राचीन रक्षके दर्शनोंकी उत्कठा उत्पन्न होती थी, उन्हें निराश ही होना पड़ता था। जिस समय यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी, उसके थोड़े ही दिनों बाद मेरे पूज्य पिता पण्डित केदारनाथ जी पाठकने इसे देखा था और उन्हें यह बहुत अधिक पसन्द आई थी। उसके थोड़े ही दिनों बाद पूज्य हरिऔध जी से उनका परिचय भी हुआ था और तब से वे मेरे पिता जो पर बहुन अधिक स्नेह रखते आए थे। जब यह ग्रंथ बिलकुल अप्राप्य हो गया और इसकी यथेष्ट माँग बनी रही, तब उसी पुराने स्नेह के नाते मेरे पिताजीने आपसे कई वार कहा कि आपके और सब ग्रंथ तो कई कई बार छप चुके हैं। और प्राप्य हैं, पर एक