दूसरे संस्करण की भूमिका।
आज हिन्दी भाषा की विजय वैजयन्ती सब ओर फहरा रही है, आज वह सर्व जन आद्वत है। भारतवर्ष के प्रधान विश्वविद्यालयों में उसको सर्वोच्च स्थान प्राप्त हो गया है, और अनेक राजदर्बारों में भी वह समर्चित और सम्मानित है। यदि उसकी विजयदुन्दुभी के निनाद से सुदूर दक्षिण प्रान्त निनांदित है,तो भारत के सीमांत प्रदेश सिंध और पंजाब में भी उसके प्रसार का आनन्द कोलाहल श्रवणगत हो रहा है। अंग्रेजी भाषा के बड़े बड़े विद्वानों की दृष्टि हिन्दी भाषा पर पड़ रही है। उन्होंने उसको सादर ग्रहण ही नहीं किया, उसकी सेवा का व्रत भी लिया है। संस्कृत के विद्वानों की वह उपेक्षा दृष्टि अब नहीं रही, जो हिन्दी भाषा के विषय में पहले थी। अब वे लोग भी उसकी व्यापकता से प्रभावित हैं, और धीरे धीरे उसकी ओर आकृष्ट हो रहे हैं। आज उसका भाण्डार अनेक ग्रन्थरत्नों से पूर्ण है, और दिन दिन वह समुन्नत और सर्वगुण सम्पन्न हो रही है। उसका उज्ज्वल भविष्य इस समय उसके प्रतिस्पर्धियों को चकित कर रहा है।
किन्तु अब से चालीस पैंतालीस वर्ष पहले उसकी यह अवस्था नहीं थी। भारत गगन का एक इन्दु अपने विकास द्वारा उस समय उसको सुविकसित बना रहा था, अपनी सुधामयी लेखनी द्वारा उसमें जीवन संचार कर रहा था, कुछ तारे भी उसके साथ जगभगा कर अपने क्षीण आलोक से उसको आलोकित कर रहे थे। किन्तु फिर भी उसके चारों ओर घनीभूत अंधकार था। पठित समाज उन दिनों उसको बड़ी तुच्छ दृष्टि से देखता था। संस्कृत के विद्वान् तो उसको फूटी आँखों न देख पाते। हिन्दुओं को कई विशेष जातियाँ उस के लिये खड़हस्त थीं, और उसका