इस बीच परोजी कूछ अनुलेप और वस्त्र ले आया और उसने अपने सुहृद के ब्रण को पट्टी चढ़ा कर बांध दिया।
काण्टेराइनो―"कवि हारेसने सत्य कहा है कि दर्शनविद्, उपान निर्माता, नृपति, बैद्य, जो कुछ चाहे बन सकता है। देखो कि परोजी दर्शनविद् होने के कारण किस सावधानो के साथ मेरे लिये पट्टी निर्म्माण कर रहा है। मित्र! मैं तुम्हारा उपकृत और वाधित हूँ, तुम्हारी इतनी अनुकम्पा बहुत है। अब सुहदवरो! मेरे पास बैठो और सुनो कि क्या क्या अद्भुत और विचित्र बाते वर्णन करता हूँ।
फलीरी―"कहो"।
काण्टेराइनो―"ज्योंही संध्या समय समीप आया मैं पटावृत होकर घर से इस प्रयोजन से निकला कि यदि सम्भव हो तो डाकुओं का पता लगाऊँ। मैं उनसे अभिज्ञ न था और न वह मुझे पहचानते थे। कदाचित् आपलोग कहेंगे कि यह काम मैंने मूर्खताका किया परन्तु मैं आपलोगों पर सिद्ध करना चाहता हूँ कि कैसा ही कठिन कार्य्य क्यों न हो यदि मनुष्य उसके करने के लिये कटिवद्ध हो तो वह अवश्य- मेव हो सकता है। मुझे उन दुष्टात्माओंका चिन्ह बहुत ही अल्प ज्ञात था तो भी मैं उतने ही पते पर चल निकला। संयोग से मुझ से एक नाविक से भेट हो गई जिसका स्वरूप देख कर मुझे परमाश्चर्य हुआ। मैंने उससे बातें करनी प्रारम्भ कीं और अन्त को मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि वह उन डाकुओं के निवासस्थान से अभिज्ञ है। तब मैंने कुछ मुद्रा और बहुत सी स्तुति के द्वारा उससे इतना भेद पाया कि यद्यपि कि वह उनके समूह में मिलित नहीं है, परन्तु प्रायः उन लोगो ने उससे अपना कार्य सम्पादन कराया है। मैंने तत्काल उसको कुछ देकर सन्तुष्ट किया और वह अपनी नौका