त्रयोदश परिच्छेद।
गत परिच्छेद में मैं लिख चुका हूँ कि फ्लोडोआर्डो उदास रहता था और रोजाबिला रुजग्रस्त थी, परन्तु अब तक मैंने अपने पाठकों को उसकी वास्तवता से अभिज्ञ नहीं किया है इस लिये यहाँ उसका वर्णन आवश्यक है। फ्लोडोआर्डो जब वेनिस में पहले पहल आया तो लोग उसे आनन्द का स्वरूप समझते और जिस समाज में वह संयुक्त होता था, उस समाज के लोग उसको उसका प्राण जानते, परन्तु एक दिन कुछ ऐसे सन्ताप से उसका हृदय सन्तप्त हुआ जिससे उसका सम्पूर्ण आनन्द मिट्टी में मिल गया और संभवतः उसी दिन से रोजाबिलो के रोगों के चिह्न भी प्रगट होने लगे। इसका विवरण यह है कि एक दिवस दैवात् रोजाबिला अपने पितृव्य के उस उपवन में भ्रमण के लिये गई, जहाँ नृपतिवर्य के प्राणोपम मित्रों के अति- रिक्त कोई दूसरा जाने न पाता था और जहाँ कभी कभी स्वयं महाराज संध्या समय एकाकी जाकर बैठा करते थे। वहाँ पहुँच कर वह अपने विचारों में डूबी हुई उपवन की छाया वान पटरियों पर टहलने लगी। कभी वह झुझला कर वृक्षों से पत्रोंको नोचती और पृथ्वी पर फेंकती, कभी अकस्मात् रुक जाती, कभी वेग से आगे बढ़ जाती, और फिर चुपचाप खड़ी होकर आकाश की ओर देखने लगती, कभी उसका हृदय तीव्रता के साथ धड़कने लगता, और कभी उसके ओठों से एक दबी हुई आह निकलती। अन्ततः वह आपही आप कह उठी, वह अत्यन्त सुन्दर है, और अपने सामने इस अनुराग के साथ देखने लगी जैसे उसे कोई बस्तु जो औरों को दिख