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वैदेही-वनवास

पड़े बलाओं में जिस पेशानी पर कभी न बल आया।
उसे सिकुड़ता बार बार क्यों देख मम हगों ने पाया ।।
क्यों उद्वेजक - भाव आपके आनन पर दिखलाते हैं।
क्यों मुझको अवलोक आपके हग सकरुण हो जाते हैं ॥१४॥

कुछ विचलित हो अति-अविचल-मति क्यों बलवत्ता खोती है।
क्यों आकुलता महा - धीर - गंभीर हृदय में होती है।
कैसे तेजः - पुंज सामने किस बल से वह अड़ती है।
कैसे रघुकुल-रवि-आनन पर चिन्ता छाया पड़ती है ॥१५॥

देख जनक - तनया का आनन सुन उनकी बाते सारी।
बोल सके कुछ काल तक नही अखिल-लोक के हितकारी ।
फिर बोले गंभीर भाव से अहह प्रिये क्या बतलाऊँ।
है सामने कठोर समस्या कैसे भला न घबराऊँ ॥१६॥

इतना कह लोकापवाद की सारी बातें बतलाई ।
गुरुताये अनुभूत उलझनों की भी उनको जतलाई ।
गन्धर्वो के महा-नाश से प्रजा - वृन्द का कॅप जाना।
लवणासुर का गुप्त भाव से प्रायः उनको उकसाना ॥१७॥

लोकाराधन में वाधाये खड़ी कर रहा है कैसी।
यह बतला फिर कहा उन्होने शान्ति - अवस्था है जैसी॥
तदुपरांत बन संयत रघुकुल-पुंगव ने यह बात कही।
जो जन-रव है वह निन्दित है, है वह नही कदापि सही ॥१८॥