पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७१
पंचम सर्ग

यह अपवाद लगाया जाता है मुझको उत्तेजित कर ।
द्रोह - विवश दनुजों का नाश कराने में तुम हो तत्पर ।
इसी सत्र से कतिपय - कुत्साओं की है कल्पना हई।
अविवेकी जनता के मुख से निन्दनीय जल्पना हुई ॥१९॥

दमन नही मुझको वांछित है तुम्हें भी न वह प्यारा है।
सामनीति ही जन अशान्ति-पतिता की सुर-सरि-धारा है।
लोकाराधन के बल से लोकापवाद को दल दूंगा।
कलुषित-मानस को पावन कर मैं मन वांछित फल लूंगा ॥२०॥

इच्छा है कुछ काल के लिये तुमको स्थानान्तरित करूँ।
इस प्रकार उपजा प्रतीति में प्रजा-पुंज की भ्रान्ति हरूँ ॥
क्यों दूसरे पिसे, संकट में पड़, बहु दुख भोगते रहें।
क्यों न लोक-हित के निमित्त जो सह पाये हम स्वयं सहें ॥२१॥

जनक - नन्दिनी ने हग में आते ऑसू को रोक कहा।
प्राणनाथ सब तो सह लूंगी क्यों जायेगा विरह सहा ॥
सदा आपका चन्द्रानन अवलोके ही मैं जीती हूँ।
रूप-माधुरी-सुधा तृषित बन चकोरिका सम पीती हूँ ॥२२॥

बदन विलोके बिना बावले युगल - नयन बन जायेगे।
तार वॉध बहते ऑसू का वार - वार घबरायेगे।
मुंह जोहते बीतते बासर राते सेवा में कटतीं।
हित-वृत्तियाँ सजग रह पल-पल कभी न थी पीछे हटती ॥२३॥