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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/११२

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वैदेही-वनवास

किन्तु सोचकर कष्ट तुमारा थाम कलेजा लेता हूँ।
कैसे क्या समझाऊँ जब मैं ही तुम को दुख देता हूँ।
तो विचित्रता भला कौन है जो प्रायः घबराता हूँ।
अपने हृदय - वल्लभा को मैं वन - वासिनी बनाता हूँ ॥३४॥

धर्म-परायणता पर-दुख-कातरता विदित तुमारी है।
भवहित-साधन-सलिल-मीनता तुमको अतिशय प्यारी है ।
तुम हो मूर्तिमती दयालुता दीन पर द्रवित होती हो।
संसृति के कमनीय क्षेत्र में कर्म - बीज तुम बोती हो ॥३५॥

इसीलिये यह निश्चित था अवलोक परिस्थिति हित होगा।
स्थानान्तरित विचार तुमारे द्वारा अनुमोदित होगा।
वही हुआ, पर विरह - वेदना भय से मैं बहु चिन्तित था।
देख तुमारी प्रेम प्रवणता अति अधीर था शंकित था ॥३६॥

किन्तु बात सुन प्रतिक्रिया की सहृदयता से भरी हुई।
उस प्रवृत्ति को शान्ति मिल गई जो थी अयथा डरी हुई।
तुम विशाल - हृदया हो मानवता है तुम से छबि पाती।
इसीलिये तुम में लोकोत्तर त्याग-वृत्ति है दिखलाती ॥३७॥

है प्राचीन पुनीत प्रथा यह मंगल की आकांक्षा से।
सब प्रकार की श्रेय दृष्टि से बालक हित की वांछा से॥
गर्भवती - महिला कुलपति - आश्रम में भेजी जाती है।
यथा - काल संस्कारादिक होने पर वापस आती है ॥३८॥