सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७६
वैदेही-वनवास

प्रिये इसलिये जब तक पूरी शान्ति नही हो जावेगी।
लोकाराधन - नीति न जव तक पूर्ण-सफलता पावेगी।
रहोगी वहाँ तुम तब तक मैं तब तक वहाँ न आऊँगा।
यह असह्य है, सहन-शक्ति पर मैं तुम से ही पाऊँगा ॥४४॥
आज की रुचिर राका - रजनी परम-दिव्य दिखलाती थी।
विहँस रहा था विधु पा उसको सिता मंद मुसकाती थी।
किन्तु बात की बात में गगन-तल में वारिद घिर आया ।
जो था सुन्दर समा सामने उस पर पड़ी मलिन-छाया ॥४५॥
पर अब तो मैं देख रहा हूँ भाग रही है घन - माला।
बदले हवा समय ने आकर रजनी का संकट टाला ।।
यथा समय आशा है यों ही दूर धर्म - संकट होगा।
मिले आत्मबल, आतप में सामने खड़ा वर - वट होगा ॥४६॥

चौपदे


जिससे अपकीर्ति न होवे।
लोकापवाद से छूट ।।
जिससे सद्भाव - विरोधी।
कितने ही बंधन टूटे ॥४७॥

जिससे अशान्ति की ज्वाला।
प्रज्वलित न होने पावे ।।
जिससे सुनीति - घन - माला ।
घिर शान्ति - वारि वरसावे ॥४८॥