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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/११५

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पंचम सर्ग

जिससे कि आपकी गरिमा ।
बहु गरीयसी कहलावे ॥
जिससे गौरविता भू हो ।
भव मे भवहित भर जावे ॥४९।।

जानकी ने कहा प्रभु मैं।
उस पथ की पथिका हूँगी ।।
उभरे कॉटों में से ही।
अति - सुन्दर - सुमन चुनेंगी ॥५०॥

पद - पकज - पोत सहारे।
संसार - समुद्र तरूँगी।
वह क्यों न हो गरलवाला।
मैं सरस सुधा ही लूंगी ॥५१।।

शुभ - चिन्तकता के बल से।
क्यों चिन्ता चिंता बनेगी।
उर - निधि - आकुलता सीपी।
हित - मोती सदा जनेगी ॥५२॥

प्रभु - चित्त - विमलता सोचे ।
धुल जायेगा मल सारा ।।
सुरसरिता बन जायेगी।
ऑसू की बहती धारा ॥५३।।