पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
षष्ठ सर्ग
कातरोक्ति
पादाकुलक

प्रवहमान प्रातः - समीर था।
उसकी गति में थी मंथरता॥
रजनी - मणिमाला थी टूटी।
पर प्राची थी प्रभा - विरहिता ॥१॥

छोटे छोटे धन के टुकड़े।
घूम रहे थे नभ - मण्डल में ।
मलिना - छाया पतित हुई थी।
प्राय जल के अन्तस्तल में ॥२॥