पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

षष्ठ सर्ग

पग - वन्दन कर जनक तान्दना।
उनके पास बैठ कर वोलीं।।
धीरज धर कर विनत - भाव से ।
प्रिय - उक्तियाँ थैलियाँ खोली ॥८॥

कर मंगल - कामना प्रसव की।
जनन - क्रिया की सद्वांछा से ॥
सकल - लोक उपकार - परायण ।
पुत्र - प्राप्ति की आकांक्षा से॥९॥

है पतिदेव भेजते मुझको।
वाल्मीक के पुण्याश्रम में।
दीपक वहाँ वलेगा ऐसा ।
जो आलोक करेगा तम में ॥१०॥

आज्ञा लेने मैं आई है।
और यह निवेदन है मेरा॥
यह दे आशीर्वाद सदा ही।
रहे सामने दिव्य सवेरा ॥११॥

दुख है अब मैं कर न सकूँगी।
कुछ दिन पद - पंकज की सेवा ।।
आह प्रति-दिवस मिल न सकेगा।
अब दर्शन मजुल - तम - मेवा ॥१२॥