सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८२
वैदेही-वनवास

माता की ममता है मानी।
किस मुंह से क्या सकती हूँ कह ।।
पर मेरा मन नहीं मानता।
मेरी विनय इसलिये है यह ॥१३॥

मैं प्रति - दिन अपने हाथों से।
सारे व्यंजन रही बनाती ॥
पास बैठ कर पंखा झल झल ।
प्यार सहित थी उन्हें खिलाती ॥१४॥

प्रिय-तम सुख - साधन-आराधन-
में थी सारा - दिवस बिताती ॥
उनके पुलके रही पुलकती ।
उनके कुम्हलाये कुम्हलाती ।।१५।।

हैं गुणवती दासियाँ कितनी ।
हैं पाचक पाचिका नही कम ।।
पर है किसी में नही मिलती।
जितना वांछनीय है संयम ॥१६॥

जरा - जर्जरित स्वयं आप हैं।
है क्षन्तव्य धृष्टता मेरी॥
इतना कह कर जननि आपकी ।
केवल दृष्टि इधर है फेरी ॥१७॥