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वैदेही-वनवास

ऐसे अवसर पर सहायता ।
सच्ची वह तुमसे पाता था।
मंद मंद बहते मारुत से।
घिरा घन - पटल टल जाता था ।॥४३॥

है विपत्ति - निधि - पोत-स्वरूपा।
सहकारिणी सिद्धियों की है।
है पत्नी केवल न गेहिनी।
सहधर्मिणी मंत्रिणी भी है ॥४४॥

खान पान सेवा की बाते ।
कह तुमने है मुझे रुलाया ।।
अपनी व्यथा कहूँ मैं कैसे ।
आह कलेजा मुँह को आया ।।४५।।

जिस दिन सुत ने आ प्रफुल्ल हो । .
आश्रम - वास प्रसंग सुनाया।
उस दिन उस प्रफुल्लता में भी।
मुझको मिली व्यथा की छाया ॥४६॥

मिले चतुर्दश - वत्सर का वन ।
राज्य श्री की हुए विमुखता ।।
कान्ति-विहीन न जो हो पाया।
दूर हुई जिसकी न विकचता ।।४७।।