पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१२७

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षष्ठ सर्ग

क्यों वह मुख जैसा कि चाहिये ।
वैसा नही प्रफुल्ल दिखाता॥
तेज - वन्त - रवि के सम्मुख क्या ।
है रज - पुंज कभी आ जाता ।।४८।।

आत्मत्याग का बल है सुत को।
उसकी सहन - शक्ति है न्यारी॥
वह परार्थ - अर्पित - जीवन है।
है रघुकुल - मुख - उज्वलकारी ॥४९॥

है मम - कातरोक्ति स्वाभाविक ।
व्यथित हृदय का आश्वासन है ।।
शिरोधार्य गुरु - देवाज्ञा है।
मांगलिक सुअन - अनुशासन है ।।५०॥

रोला


जाओ पुत्री परम - पूज्य पति - पथ पहचानो।
जाओ अनुपम - कीर्ति वितान जगत मे तानो ।।
जाओ रह पुण्याश्रम मे वांछित फल पाओ।
पुत्र - रत्न कर प्रसव वंश को वंद्य वनाओ ।।५१।।

जाओ मुनि - पुंगव - प्रभाव की प्रभा वढ़ाओ।
जाओ परम - पुनीत - प्रथा की व्वजा उड़ाओ।
जाओ आकर यथा - शीघ्र उर - तिमिर भगाओ।
निज-विधु-वदन समेत लाल-विधु-वदन दिखाओ ।।५२।।