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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१३१

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षष्ठ सर्ग

है सुख - मय रात न होती।
दिन में है चैन न आता ।।
दुर्वलता - जनित - उपद्रव ।
प्रायः है जिन्हें सताता ॥६८।।

मेरी यात्रा से अतिशय ।
आकुल वे हैं दिखलाती ।।
है कभी कराहा करती।
है ऑसू कभी वहाती ॥६९॥

वहनों उनकी सेवा तज ।
क्या उचित है कही जाना ॥
तुम लोग स्वयं यह समझो।
है । धर्म उन्हें कलपाना ? ।।७०॥

है मुख्य - धर्म पत्नी का।
पति - पद - पंकज की अर्चा ।।
जो स्वय पति - रता होवे ।
क्या उससे इसकी चर्चा ॥७१॥

पर एक बात कहती हूँ।
उसके मर्मों को छूलो ॥
निज - प्रीति - प्रपंचों मे पड ।
पति - पद सेवा मत भूलो ॥७२॥