यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९४
वैदेही-वनवास
अन्य स्त्री 'जा, न सकी यह ।
है पूत - प्रथा बतलाती ॥
नृप - गर्भवती - पत्नी ही।
ऋषि - आश्रम में है जाती ॥७३॥
अतएव सुनो प्रिय बहनो।
क्यों मेरे साथ चलोगी।
कर अपने कर्तव्यों को।
कल - कीर्ति लोक में लोगी ॥७४॥
है मृदु तुम लोगों का उर ।
है उसमें प्यार छलकता ॥
मुझ से लालित पालित हो।
है मेरी ओर ललकता ॥७५॥
जैसा ही मेरा हित है।
तुम लोगों को अति - प्यारा॥
वैसी ही मेरे उर में।
बहती है हित की धारा ७६॥
तुम लोगों का पावन - तम ।
अनुराग - राग अवलोके ॥
है हृदय हमारा गलता।
ऑसू रुक पाया रोके ॥७७॥