पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१३७

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सप्तम सर्ग

सजल - कलस कान्त - पल्लवों से ।
बने हुए द्वार थे फबीले ॥
सु-छबि मिले छबि-निकेतनों की।
हुए सभी - सम थे छबीले ॥४॥

खिले हुए फूल से लसे थल।
ललामता को लुभा रहे थे।
सुतोरणों के हरे - भरे - दल ।
हरा भरा चित बना रहे थे ॥५॥

गड़े हुए स्तंभ कदलियों के ।
दलावली छबि दिखा रहे थे।
सुश्य - सौदर्य - पट्टिका पर ।
सुकीर्ति अपनी लिखा रहे थे ॥६॥

प्रदीप जो थे लसे कलस पर ।
मिली उन्हें भूरि दिव्यता थी॥
पसार कर रवि उन्हें परसता ।
उन्हे चूमती दिवा - विभा थी॥७॥

नगर गृहों मंदिरों मठों पर ।
लगी हुई सजिता ध्वजाये ॥
समीर से केलि कर रही थीं।
उठा उठा भूयसी भुजाये ॥८॥