यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१००
वैदेही-वनवास
सजे हुए राज - मन्दिरों पर।
लगी पताका विलस रही थी।
जटित रत्नचय विकास के मिस ।
चुरा चुरा चित्त हँस रही थी॥९॥
न तोरणों पर न मञ्च पर ही।
अनेक - वादिन बज रहे थे।
जहाँ तहाँ उच्च - भूमि पर भी।
नवल - नगारे गरज रहे थे ॥१०॥
न गेह में ही कुलांगनाये।
अपूर्व कल - कंठता दिखाती ॥
कही कही अन्य - गायिका भी ।
बड़ा - मधुर गान थी सुनाती ॥११॥
अनेक - मैदान मंजु बन कर ।
अपूर्व थे मंजुता दिखाते ॥
सजावटों से अतीव सज कर ।
किसे नहीं मुग्ध थे बनाते ॥१२॥
तने रहे जो वितान उनमें ।
विचित्र उनकी विभूतियाँ थी।
सदैव उनमें सुगायकों की।
विराजती मंजु - मूर्तियॉ थी ॥१३॥