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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१४६

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वैदेही-वनवास

अधीर - सौमित्र को विलोके ।
कहा धीर - धर धरांगजा ने ॥
बड़ी व्यथा हो रही मुझे है।
अवश्य है जी नही ठिकाने ॥४९॥

परन्तु कर्त्तव्य है न भूला ।
कभी उसे भूल मैं न देंगी।
नहीं सकी मैं निवाह निज व्रत ।
कभी नहीं यह कलंक लूंगी ॥५०॥

विपम समस्या सदन विश्व है।
विचित्र है सृष्टि कृत्य सारा ।।
तथापि विष - कंठ - शीश पर है।
प्रवाहिता स्वर्ग - वारि - धारा ।।५१।।

राहु केतु हैं जहाँ व्योम में ।
जिन्हें पाप ही पसंद आया ।
वही दिखाती सुधांशुता है।
वही सहस्रांशु जगमगाया ॥५२॥

द्रवण शील है स्नेह सिधु है।
हृदय सरस से सरस दिखाया ।।
परन्तु है त्याग - शील भी वह ।
उसे न कब पूत - भाव भाया ।।५३॥