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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१४७

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सप्तम सर्ग

स्वलाभ तज लोक - लाभ - साधन ।
विपत्ति से भी प्रफुल्ल रहना ।।
परार्थ करना न स्वार्थ - चिन्ता।
स्वधर्म - रक्षार्थ क्लेश सहना ॥५४।।

मनुष्यता है करणीय कृत्य है।
अपूर्व - नैतिकता का विलास है।
प्रयास है भौतिकता विनाश का।
नरत्व - उन्मेप - क्रिया-विकास है ।।५५।।

विचार पतिदेव का यही है।
उन्हे यही नीति है रिझाती ।।
अशान्त भव में यही रही है।
सदा शान्ति का स्रोत बहाती ॥५६।।

उसे भला भूल क्यों सकूँगी।
यही ध्येय आजन्म रहा है।
परम - धन्य है वह पुनीत थल ।
जहाँ सुरसरी सलिल बहा है।।५७।।

विलोक आँखे मयंक - मुख को।
रही सुधा - पान नित्य करती ।।
बनी चकोरी अतृप्त रहकर ।
रही प्रचुर - चाव साथ अरती ॥५८॥