पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१५१

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सप्तम सर्ग ११३

उसी पूत - पद - पोत सहारे।
विरह - उदधि को पार करूँगी ।
विधु - सुन्दर वर - वदन ध्यान कर ।
सारा अंतर - तिमिर हरूँगी ॥७४।।

सर्वोत्तम साधन है उर मे।
भव - हित पूत - भाव का भरना ॥
स्वाभाविक - सुख - लिप्साओं को।
विश्व - प्रेम में परिणत करना ।।७५।।

दोहा


इतना सुन सौमित्र की दूर हुई दुख - दाह ।
देखा सिय ने सामने सरि - गोमती - प्रवाह ॥७६।।