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वैदेही-वनवास

अवश्य सुख वासना मनुज को ।
सदा अधिक श्रान्त है वनाती ।।
पड़े स्वार्थ - अंधता तिमिर में।
न लोक हित-मूर्ति है दिखाती ।।६९।।

कहाँ हुआ है उबार किसका।
सदा सभी की हुई हार है।
अपार - संसार वारिनिधि में।
आत्मसुख मॅवर दुर्निवार है॥७०।।

बड़े बड़े पूज्य - जन जिन्होंने ।
गिना स्वार्थ को सदैव सिकता।
न रोक पाये प्रकृति प्रकृति को।
न त्याग पाये स्वाभाविकता ॥७१॥

चौपदे


मैं अबला हूँ आत्मसुखों की।
प्रबल लालसाये प्रतिदिन आ॥
मुझे सताती रहती हैं जो।
तो इसमें है विचित्रता क्या ॥७२॥

किन्तु सुनो सुत जिस पति-पद की।
पूजा कर मैंने यह जाना ।।
आत्मसुखों से आत्मत्याग । ही।
सुफलद अधिक गया है माना ॥७३॥