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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१५३

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अष्टम सर्ग

जहाँ तहाँ मृग खड़े स्वभोले नयन से-
समय मनोहर - दृश्य रहे अवलोकते ।।
अलस - भाव से विलस तोड़ते अंग थे।
भरते रहे छलॉग जब कभी चौकते ॥४॥

परम - गहन - वन या गिरी - गह्वर - गर्भ मे ।
भाग भाग कर तिमिर - पुंज था छिप रहा ॥
प्रभा प्रभावित थी प्रभात को कर रही ।
रवि - प्रदीप्त कर से दिशांक था लिप रहा ॥५॥

दिव्य बने थे आलिगन कर अंशु का।
हिल तरु-दल जाते थे मुक्तावलि बरस ।।
विहग - वृन्द की केलि - कला कमनीय थी।
उनका स्वागत - गान बडा ही था सरस ॥६॥

शीतल - मंद - समीर वर - सुरभि कर वहन ।
शान्त - तपोवन - आश्रम में था बह रहा ।।
बहु - संयत वन भर भर पावन - भाव से।
प्रकृति कान में शान्ति बात था कह रहा ॥७॥

जो किरणे तरु - उच्च - शिखा पर थी लसी।
ललित - लताओं को अब वे थी चूमती॥
खिले हुए नाना - प्रसून से गले मिल ।
हरित - तृणावलि में हँस हँस थी घूमती ॥८॥