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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१५४

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वैदेही-वनवास

मन्द - मन्द गति से गयंद चल चल कहीं।
प्रिय - कलभों के साथ केलि में लग्न थे॥
मृग - शावक थे सिह - सुअन से खेलते ।
उछल कूद में रत कपि मोद - निमग्न थे ॥९॥

आश्रम - मन्दिर - कलश अन्य-रवि-बिम्ब बन ।
अद्भुत - विभा - विभूति से विलस था रहा।
दिव्य - आयतन मे उसके कढ़ कण्ठ से।
वेद - पाठ स्वर सुधा स्रोत सा था बहा ॥१०॥

प्रात: - कालिक - क्रिया की मची धूम थी।
जन्हु - नन्दिनी के पावनतम - कूल पर ।।
स्नान, ध्यान, वन्दन, आराधन के लिये।
थे एकत्रित हुए सहस्रों नारि - नर ॥११॥

स्तोत्र - पाठ स्तवनादि से ध्वनित थी दिशा।
सामगान से मुखरित सारा - ओक था।
पुण्य - कीर्तनों के अपूर्व - आलाप से।
पावन - आश्रम बना हुआ सुरलोक था ॥१२

हवन क्रिया सर्वत्र सविधि थी हो रही।
बड़ा - शान्त बहु - मोहक - वातावरण था ।।
हुत - द्रव्यों से तपोभूमि सौरभित थी।
मूर्तिमान बन गया सात्विकाचरण था ॥१३॥