विद्यालय का वर - कुटीर या रम्य - थल ।
आश्रम के अन्यान्य - भवन उत्तम बड़े ॥
परम - सादगी के अपूर्व - आधार थे।
कीति - पताका कर में लेकर थे खड़े ॥१४॥
प्रात' - कालिक - दृश्य सबों का दिव्य था।
रवि - किरणे थीं उन्हें दिव्यता दे रही ।
उनके अवलम्बन से सकल - वनस्थली ।
प्रकृति करों से परम - कान्ति थी ले रही ॥१५॥
इसी समय अति - उत्तम एक कुटीर मे।
जो नितान्त - एकान्त - स्थल मे थी बनी।।
थीं कर रही प्रवेश साथ सौमित्र के।
परम - धीर-गति से विदेह की नन्दिनी ॥१६॥
कुछ चल कर ही शान्त - मूर्ति - मुनिवर्या की।
उन्हें दिखाई पड़ी कुशासन पर लसी।
जटा - जूट शिर पर था उन्नत - भाल था।
दिव्य - ज्योति उज्वल - आँखों में थी बसी ॥१७॥
दीर्घ - विलम्बित - श्वेत -उमश्र, मुख - सौम्यता।
थी मानसिक - महत्ता की उद्बोधिनी ।।
शान्त - वृत्ति थी सहृदयता की सूचिका।
थी विपत्ति - निपतित की सतत प्रबोधिनी ।।१८।।
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अष्टम सर्ग