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अष्टम सर्ग

मुख अवलोकन करती रहती थी सदा ।
कौशल्या देवी तन मन, धन, वार कर ॥
सव प्रकार के भव के सुख, कर - बद्ध हो ।
खड़े सामने रहते थे आठो पहर ॥३४॥

किन्तु देखकर जीवन - धन का वन - गमन ।
आप भी बनी सब तज कर वन - वासिनी ॥
एक दो नहीं चौदह सालों तक रहीं।
प्रेम - निकेतन पति के साथ प्रवासिनी ॥३५॥

वन जाती थीं सकल भीतियाँ भूतियाँ।
कानन मे आपदा सम्पदा सी सदा ।।
आपके लिये प्रियतम प्रेम - प्रभाव से।
वनती थीं सुखदा कुवस्तुये दुखदा ॥३६।।

पट्ट - वस्त्र बन जाता था वल्कल - वसन ।
साग पात में मिलता व्यजन स्वाद था।
कान्त साथ तृण - निर्मित साधारण उटज ।
बहु - प्रसाद पूरित बनता प्रासाद था ।।३७।।

शीतल होता तप - ऋतु का उत्ताप था।
लू लपटे बन जाती थीं प्रात - पवन ।।
बनती थी पति साथ सेज सी साथरी।
सारे कॉटे होते थे सुन्दर सुमन ॥३८॥