पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२२
वैदेही-वनवास

जीवन भर में छ महीने ही हुआ है।
पति - वियोग उस समय जिस समय आपको।
हरण किया था पामर - लंकाधिपति ने।
कर सहस्र - गुण पृथ्वी तल के पाप को ॥३९।।

किन्तु यह समय ही वह अद्भुत समय था।
हुई जिस समय ज्ञात महत्ता आपकी ॥
प्रकृति ने महा - निमम बनकर जिस समय ।
आपके महत - पातिव्रत की माप की ॥४०॥

वह रावण जिससे भूतल था कॉपता।
एक वदन होते भी जो दश - वदन था।
हो द्विबाहु जो विशति बाहु कहा गया ।
धृति शिर पर जो प्रबल वज्र का पतन था ॥४१॥

महा - घोर गर्जन तर्जन प्रतिवार कर।
दिखा दिखा करवाले विद्युद्दाम सी॥
कर कर कुत्सित रीति कदर्य प्रवृत्ति से।
लोक प्रकम्पित करी क्रियायें तामसी ॥४२।।

रख त्रिलोक की भूति प्रायशः सामने ।
राज्य - विभव को चढ़ा चढ़ा पद पद्म पर ।।
न तो विकम्पित कभी कर सका आपको ।
न तो कर सका वशीभूत वहु मुग्ध कर ॥४३॥'