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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१६२

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वैदेही-वनवास

आस पास दानव - गण करते शोर थे।
कर दानवी - दुरन्त - क्रिया की पूर्तियाँ ।।
रहे फेकते लूक सैकड़ों सामने ।
दिखा दिखा कर बहु - भयंकरी - मूर्तियाँ ।।४९।।

इन उपद्रवो उत्पातों का सामना ।
आपका सवलतम सतीत्व था कर रहा ।।
हुई अन्त में सती - महत्ता विजयिनी ।
लंकाधिप - वध - वृत्त लोक - मुख ने कहा ॥५०॥

पुत्रि आपकी शक्ति महत्ता विज्ञता।
धृति उदारता सहृदयता बढ़- चित्तता ।।
मुझे ज्ञात है किन्तु प्राण - पति प्रेम की ।
परम - प्रबलता तदीयता एकान्तता ।।५१।।

ऐसी है भवदीय कि मैं संदिग्ध हूँ।
क्यों वियोग - वासर व्यतीत हो सकेगे।
किन्तु कराती है प्रतीति धृति आपकी ।
अंक कीर्ति के समय - पत्र पर अकेंगे ॥५२।।

जो पति प्राणा है पति - इच्छा पूर्ति तो।।
क्या न प्राणपण से बह करती रहेगी।
यदि वह है संतान - विपयिणी क्यो न तो।
प्रेम - जन्य - पीड़ा संयत बन सहगी ।।५३।।