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वैदेही-वनवास

सुधा धवलिसा देख कालिमा की क्रिया।
रूप बदल कर रही मलिन - बदना वनी॥
उतर रही थी धीरे कर से समय के।
सब सौधों में तनी दिवासित चाँदनी ॥३॥

तिमिर फैलता महि - मण्डल में देखकर ।
मंजु - मशाले लगा व्योमतल बालने ।
ग्रीवा में श्रीमती प्रकृति - सुन्दरी के।
मणि - मालाये लगा ललक कर डालने ॥४॥

हो कलरविता लसिता दीपक - अवलि से ।
निज विकास से बहुतों को विकसित वना ॥
विपुल - कुसुम - कुल की कलिकाओं को खिला।
हुई निशा मुख द्वारा रजनी - व्यंजना ॥५॥

इसी समय अपने प्रिय शयनागार में।
सकल भुवन अभिराम राम आसीन थे।
देख रहे थे अनुज - पंथ उत्कंठ हो।
जनक - लली लोकोत्तरता में लीन थे॥६॥

तोरण पर का वाद्य बन्द हो चुका था।
किन्तु एक वीणा थी अब भी झंकृता ।
पिला पिला कर सुधा पिपासित - कान को।
मधुर - कंठ - स्वर से मिल वह थी गुंजिता ॥७॥