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वैदेही-वनवास

कुछ आकुल कुछ तुष्ट कुछ अचिन्तित दशा।
देख सुमित्रा - सुत की प्रभुवर ने कहा ॥
तात ! तुम्हें उत्फुल्ल नहीं हूँ देखता ।
क्यों मुझको अवलोक हगों से जल बहा । ।।११॥

आश्रम में तो सकुशल पहुँचगई प्रिया ?
वहाँ समादर स्वागत तो समुचित हुआ।
हैं मुनिराज प्रसन्न ? शान्त है तपोवन ।
नही कही पर तो है कुछ अनुचित हुआ ? ॥१२॥

सविनय कहा सुमित्रा के प्रिय - सुअन ने।
मुनि हैं मंगल - मूर्ति, तपोवन पूततम ॥
आर्या हैं स्वयमेव दिव्य देवियों सी।
आश्रम है सात्विक - निवास सुरलोक सम ॥१३॥

वह है सद्व्यवहार - धाम सत्कृति - सदन !
वहाँ कुशल है 'कार्य - कुशलता' सीखती ॥
भले - भाव सब फूले फले मिले वहाँ।
भली - भावना - भूति भरी है दीखती ॥१४॥

किन्तु एक अति - पति - परायणा की दशा।
उनकी मुख - मुद्रा उनकी मार्मिक - व्यथा ।।
उनकी गोपन - भाव - भरित दुख - व्यंजना।
उनकी बहु - संयमन प्रयत्नों की , कथा ॥१५॥