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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१६९

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नवम सर्ग

मुझे बनाती रहती है अब भी व्यथित ।
उसकी याद सताती है अव भी मुझे ॥
उन बातों को सोच न कब छलके नयन ।
आश्वासन देती कह जिन्हें कभी मुझे ॥१६॥

तपोभूमि का पूत - वायुमण्डल मिले।
मुनि - पुंगव के सात्विक - पुण्य - प्रभाव से ।।
शान्ति वहुत कुछ आर्या को है मिल रही।
तपस्विनी - गण सहृदयता सद्भाव से ॥१७।।

किन्तु पति - परायणता की जो मूर्ति है।
पति ही जिसके जीवन का सर्वस्व है।
विना सलिल की सफरी वह होगी न क्यों।
पति - वियोग मे जिसका विफल निजस्व है ॥१८॥

सिय - प्रदत्त - सन्देश सुना सौमित्र ने।
कहा, भरी है इसमें कितनी वेदना ॥
वात आपकी चले न कब दिल हिल गया।
कब न पति - रता आँखों से आंसू छना ॥१९॥

उनको है कर्तव्य ज्ञान वे आपकी-
कर्म - परायण हैं सच्ची सहधर्मिणी ॥
लोक - लाभ - मूलक प्रभु के संकल्प पर।
उत्सर्गी कृत होकर हैं कृति - ऋण - ऋणी ॥२०॥