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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१७५

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नवम सर्ग

आज बन गई है वह कानन - वासिनी।
जो मम - आनन अवलोके जीती रही ।।
आज उसे है दर्शन - दुर्लभ हो गया ।
पूत - प्रेम - प्याला जो नित पीती रही ॥४६॥

आज निरन्तर विरह सताता है उसे।
जो अन्तर से प्रियतम अनुरागिनी थी।
आह भार अब उसका जीवन हो गया।
आजीवन जो मम - जीवन - सगिनी थी ॥४७।।

तात। विदित हो कैसे अन्तर्वेदना ।
काढ़ कलेजा क्यों मैं दिखलाऊँ तुम्हें ।।
स्वयं बन गया जब मैं निर्मम - जीव तो।
मर्मस्थल का मर्म क्यो वताऊँ तुम्हे ॥४८॥

क्या माताओं की मुझको ममता नही।
क्या होता हूँ दुखित न उनका देख दुख ॥
क्या पुरजन परिजन अथवा परिवार का ।
मुझे नही वांछित है सच्चा आत्म - सुख ॥४९॥

सुकृतिवती का विह्वलतामय - गान सुन ।
क्या मेरा अन्तस्तल हुआ नही द्रवित ॥ -
कथा वाजियों की सुन कर करुणा भरी।
नही हो गया क्या मेरा मानस व्यथित ।।५०।।