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वैदेही-वनवास

किन्तु प्रश्न यह है, है धार्मिक - कृत्य क्या ?
प्रजा - रंजिनी - राजनीति का मर्म क्या ?
जिससे हो भव - भला लोक - आराधना ।
वह मानव - अवलम्बनीय है कर्म क्या ॥५१॥

अपना हित किसको प्रिय होता है नहीं।
सम्बन्धी का कौन नही करता भला ।।
जान बूझ कर वश चलते जंजाल में ।
कोई नही फंसाता है अपना गला ॥५२।।

स्वार्थ - सूत्र में बंधा हुआ संसार है।
इष्ट - सिद्धि भव - साधन का सर्वस्व है।
कार्य -क्षेत्र में उतर जगत में जन्म ले।
सबसे प्यारा सबको रहा निजस्व है ॥५३॥

यह स्वाभाविक - नियम प्रकृति अनुकूल है।
यदि यह होता नही विश्व चलता नही।
पलने पर विधि - वद्ध - विधानों के कभी ।
जगतीतल का प्राणि - पुंज पलता नहीं ॥५४।।

किन्तु स्वार्थ - साधन, हित-चिन्ता-स्वजन की।
उचित वहीं तक है जो हो कश्मल - रहित ॥
जो न लोक - हित पर - हित के प्रतिकूल हो।
जो हो विधि - संगत, जो हो छल - बल - रहित ॥५५।।