सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३९
नवम सर्ग

कर पर का अपकार लोक - हित का कदन ।
निज - हित करना पशुता है, है अधमता ।।
भव-हित पर - हित देश - हितों का ध्यान रख ।
कर लेना निज - स्वार्थ - सिद्धि है मनुजता ॥५६।।

मनुजों में वे परम - पूज्य हैं वंद्य हैं।
जो परार्थ - उत्सर्गी - कृत - जीवन रहे ।'
सत्य, न्याय के लिये जिन्होंने अटल रह ।
प्राण - दान तक किये, सर्व - संकट सहे ।।५७।।

नृपति मनुज है अत: मनुजता अयन है।
सत्य न्याय का वह प्रसिद्ध आधार है।
है प्रधान - कृति उसकी लोकाराधना।
उसे शान्तिमय शासन का अधिकार है ।।५८।।

अवनीतल में ऐसे नृप - मणि हैं हुए ।
इन बातों के जो सच्चे - आदर्श थे।
दिव्य - दूत जो विभु - विभूतियों के रहे।
कर्म - पूततम जिनके मर्म - स्पर्श थे ।।५९।।

हरिश्चन्द्र, शिवि आदि नृपों की कीर्तियाँ।
अव भी है वसुधा की शान्ति - विधायिनी ।।
भव - गौरव ऋषिवर दधीचि की दिव्य - कृति ।
है अद्यापि अलौकिक शिक्षा - दायिनी ॥६०॥'