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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१८७

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दशम सर्ग

फिर भी 'राका - रजनी' कर तुम ।
उसको दिव्य बना देती हो।
कान्ति-हीन को कान्ति - मती कर ।
कमनीयता दिखा देती हो ॥२३।।

जिसे नही हंसना आता है।
चारु - हासिनी वह बनती है।।
तुमको आलिगन कर असिता।
स्वर्गिक - सितता में सनती है ॥२४॥

ताटंक


नभतल में यदि लसती हो तो,
भूतल में भी खिलती हो ।
दिव्य - दिशा को करती हो तो ,
विदिशा में भी मिलती हो ॥२५।।

बहु विकास विलसित हो वारिधि ,
यदि पयोधि बन जाता है।
तो लघु से लघुतम सरवर भी ,
तुमसे शोभा पाता है ॥२६॥

गिरि-समूह - शिखरों को यदि तुम ,
मणि - मण्डित कर पाती हो।
छोटे छोटे टीलों पर भी ,
तो निज छटा दिखाती हो ॥२७॥