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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१८६

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वैदेही-वनवास

प्रकृति हंस रही थी नभतल में ।
हिम - दीधित को हँसा हँसा कर ॥
ओस - विन्दु - मुक्तावलि द्वारा।
गोद सिता की वार बार भर ॥१८॥

चारु - हॉसिनी चन्द्र - प्रिया की।
अवलोकन कर बड़ी रुचिर - रुचि ।।
देखे उसकी लोक - रंजिनी -
कृति, नितान्त-कमनीय परम-शुचि ॥१९॥

जनक - सुता उर द्रवीभूत था।
उनके हग से था जल जाता ।।
कितने ही अतीत - वृत्तों का।
ध्यान उन्हें था अधिक सताता ॥२०॥

कहने लगी सिते । सीता भी।
क्या तुम जैसी ही शुचि होगी।
क्या तुम जैसी ही उसमें भी।
भव-हित-रता दिव्य - रुचि होगी ॥२१॥

तमा तमा है तमोमयी है।
भाव सपत्नी का है रखती ।।.
कभी तुमारी पूत - प्रीति की।
स्वाभाविकता नहीं परखती ॥२२॥