(११)
बराय पाकिये लफ्जे शबे बरोज आरन्द।
कि मुर्ग माहीओ बाशन्द खुफता ऊ बेदार॥
'एक सुन्दर शब्द बैठाने की खोज में कवि उस रात को जागकर दिन में परिणत कर देता है, जिसमें पक्षी से मछली तब बेखबर पड़े सोते रहते हैं'—
इस कथन में बड़ी मार्मिकता है। उपयुक्त और सुन्दर शब्द कविता के भावों की व्यंजना के लिए बहुत आवश्यक होते हैं। एक उपयुक्त शब्द कविता को सजीव कर देता है और अनुपयुक्त शब्द मयंक का कलंक बन जाता है। शब्द का कविता में वास्तविक रूप में आना ही उत्तम समझा जाता है। उसका तोड़ना-मरोड़ना ठीक नहीं माना जाता। यह दोष कहा गया है, किन्तु देखा जाता है कि इस दोष से बड़े-बड़े कवि भी नहीं बच पाते। इसीलिए यह कहा जाता है, 'निरंकुशा: कवय' कौन कवि निरंकुश कहलाना चाहेगा, परन्तु कवि-कर्म्म की दुरूहता ही उसको ऐसा कहलाने के लिए बाध्य करती है। आजकल हिन्दी-संसार में निरंकुशता का राज्य है। ब्रज-भाषा की कविता में शब्द-विन्यास की स्वच्छन्दता देखकर खड़ी बोली के सत्कवियों ने इस विषय में बड़ी सतर्कता ग्रहण की थी, किन्तु आजकल उसका प्राय: अभाव देखा जाता है। इसका कारण कवि-कर्म्म की दुरूहता अवश्य है। किन्तु कठिन अवसरों और जटिल स्थलों पर ही तो सावधानता और कार्य्य-दक्षता की आवश्यकता होती है। हीरा जी तोड़ परिश्रम करके ही खनि से निकाला
भू॰—२