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वैदेही-वनवास

हाँ प्रायः वियोगिनी तुमसे ,
व्यथिता बनती रहती है।
देख तुमारे जीवनधन को ,
मम - वेदना सहती है॥३८॥

यह उसका अन्तर - विकार है,
तुम तो सुख ही देती हो।
आलिगन कर उसके कितने -
तापों को हर लेती हो ॥३९।।

यह निस्वार्थ सदाशयता यह
वर - प्रवृत्ति पर - उपकारी ।
दोष - रहित यह लोकाराधन ,
यह उदारता अति - न्यारी ॥४०॥

बना सकी है भाग्य - शालिनी ,
ऐ सुभगे तुमको जैसी।
त्रिभुवन में अवलोक न पाई ,
मैं अब तक कोई वैसी ॥४१॥

इस धरती से कई लाख कोसों -
पर कान्त तुमारा है।
किन्तु बीच में कभी नहीं
बहती वियोग की धारा है ॥४२॥